फीचर : स्वरूप एवं लेखन की तकनीक
रोचक विषय का मनोरम और विशद प्रस्तुतीकरण ही
फीचर है। इसमें दैनिक समाचार, सामयिक विषय और बहुसंख्यक पाठकों की रूचि वाले विषय की चर्चा होती है।
इसका लक्ष्य मनोरंजन करना, सूचना देना और जानकारी को जनोपयोगी
ढंग से प्रस्तुत करना है।
समकालीन घटना या किसी भी क्षेत्र विशेष की
विशिष्ट जानकारी के सचित्र तथा मोहक विवरण को फीचर कहा जाता है। इसमें मनोरंजक ढंग
से तथ्यों को प्रस्तुत किया जाता है। इसके संवादों में गहराई होती है। यह
सुव्यवस्थित, सृजनात्मक व आत्मनिष्ठ लेखन है, जिसका
उद्देश्य पाठकों को सूचना देने, शिक्षित करने के साथ मुख्य रूप से उनका
मनोरंजन करना होता है।
फीचर में विस्तार की अपेक्षा होती है। इसकी
अपनी एक अलग शैली होती है। एक विषय पर लिखा गया फीचर प्रस्तुति विविधता के कारण
अलग अंदाज प्रस्तुत करता है। इसमें भूत, वर्तमान तथा
भविष्य का समावेश हो सकता है। इसमें तथ्य, कथन व कल्पना का
उपयोग किया जा सकता है। फीचर में आँकड़ें, फोटो, कार्टून, चार्ट, नक्शे
आदि का उपयोग उसे रोचक बना देता है।
फीचर
व समाचार में अंतर
फीचर
में लेखक के पास अपनी राय या दृष्टिकोण और भावनाएँ जाहिर करने का अवसर होता है, जबकि
समाचार लेखन में वस्तुनिष्ठता और तथ्यों की शुद्धता पर जोर दिया जाता है।
फीचर
लेखन में उलटा पिरामिड शैली का प्रयोग नहीं होता है। इसकी शैली कथात्मक होती है।
फीचर
लेखन की भाषा सरल, रूपात्मक व आकर्षक होती है, परंतु
समाचार की भाषा में सपाटबयानी होती है।
फीचर
में शब्दों की अधिकतम सीमा नहीं होती। ये आमतौर पर 250 शब्दों से लेकर 500 शब्दों
तक के होते हैं, जबकि समाचारों पर शब्द-सीमा लागू होती
है।
फीचर
का विषय कुछ भी हो सकता है, समाचार का नहीं।
फीचर
तथ्यों, सूचनाओं और विचारों पर आधारित कथात्मक विवरण और
विश्लेषण होता है।
फीचर
लेखन का कोई निश्चित ढाँचा या फार्मूला नहीं होता। इसे कहीं से भी अर्थात् प्रारंभ, मध्य
या अंत से शुरू किया जा सकता है।
उदाहरण
बस्ते का बढ़ता बोझ
आज
जिस भी गली, मोहल्ले या चौराहे पर सुबह के समय
देखिए, हर जगह छोटे-छोटे बच्चों के कंधों पर भारी
बस्ते लदे हुए दिखाई देते हैं। कुछ बच्चों से बड़ा उनका बस्ता होता है। यह दृश्य
देखकर आज की शिक्षा-व्यवस्था की प्रासंगिकता पर प्रश्नचिह्न लग जाता है। क्या
शिक्षा नीति के सूत्रधार बच्चों को किताबों के बोझ से लाद देना चाहते हैं ?
वस्तुत: इस मामले पर खोजबीन की जाए तो इसके
लिए समाज अधिक जिम्मेदार है। सरकारी स्तर पर छोटी कक्षाओं में बहुत कम पुस्तकें
होती हैं, परंतु निजी स्तर के स्कूलों में बच्चों के
सर्वांगीण विकास के नाम पर बच्चों व उनके माता-पिता का शोषण किया जाता है। हर
स्कूल विभिन्न विषयों की पुस्तकें लगा देते हैं। ताकि वे अभिभावकों को यह बता सकें
कि वे बच्चे को हर विषय में पारंगत कर रहे हैं और भविष्य में वह हर क्षेत्र में कमाल
दिखा सकेगा। अभिभावक भी सुपरिणाम की चाह में यह बोझ झेल लेते हैं, परंतु
इसके कारण बच्चे का बचपन समाप्त हो जाता है। वह हर समय पुस्तकों के बीच दबा रहता
है। खेलने का समय उसे नहीं दिया जाता। अधिक बोझ के कारण उसका शारीरिक विकास भी कम
होता है।
छोटे-छोटे बच्चों के नाजुक कंधों पर लदे
भारी-भारी बस्ते उनकी बेबसी को ही प्रकट करते हैं। इस अनचाहे बोझ का वजन
विद्यार्थियों पर दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है जो किसी भी दृष्टि से उचित नहीं
है।